डेयरी टुडे नेटवर्क,
चंदौली(यूपी), 15 सितंबर 2017,
स्वाति नक्षत्र में ओस की बूंद सीप पर पड़े, तो मोती बन जाती है। इस पुरानी कहावत से आशय यही है कि पूरी योजना और युक्ति के साथ कार्य किया जाए तो किस्मत चमक जाती है। उत्तरप्रदेश के चंदौली में मोती की खेती का सफल प्रयोग कर एक नवयुवक ने नई उम्मीदें जगा दी हैं। पारंपरिक कृषि के समानांतर यह नया प्रयोग इस पूरे राज्य में विकास के नए आयाम गढ़ सकता है।
वाराणसी मंडल के चंदौली जिले में महुरा प्रकाशपुर गांव में शिवम यादव नाम के युवा और प्रगतिशील किसान ने मोती की खेती का काम शुरू किया है। पूरे विंध्यक्षेत्र में मोती उत्पादन का यह पहला कारोबारी प्रयास है। शिवम की सफलता को देख अब इलाके के कई लोग उनसे प्रशिक्षण लेने आ रहे हैं।
कंप्यूटर एप्लीकेशन में स्नातक के बाद शिवम ने नौकरी या पारंपरिक कृषि की बजाय कुछ नया करने की ठानी। उन्हें पता चला कि भुवनेश्वर (उड़ीसा) की एक संस्था सीफा (सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वाटर एक्वाकल्चर) मोती उत्पादन का प्रशिक्षण देती है। शिवम ने 2014 में यहां से प्रशिक्षण लेकर अपने गांव में मोती उत्पादन शुरू कर दिया।
शिवम ने 40 गुणे 35 मीटर का एक तालाब बनाया है। इसमें वे एक बार में दस हजार सीप डालते हैं। इन सीपों में 18 माह बाद सुंदर मोती बनकर तैयार हो जाते हैं। सीप को तालाब में डालना तो आसान है, लेकिन इससे पहले अपनाई जाने वाली प्रक्रिया थोड़ी कठिन है। यह एक तरह की शल्यक्रिया होती है। एक-एक सीप के खोल में बहुत
सावधानी पूर्वक चार से छह मिलीमीटर तक का सुराख किया जाता है। इस सुराख के माध्यम से सीप के अंदर नाभिकनुमा धातु कण (मैटल टिश्यु) स्थापित किया जाता है। इसे इयोसिन नामक रसायन डालकर सीप के बीचोंबीच चिपका दिया जाता है।
शिवम ने बताया कि मैटल टिश्यु वह जापान से मंगवाते हैं। इस पर तीस हजार रुपये प्रति किलो की दर से खर्च आता है। एक किलो में पांच हजार सीप होते हैं। पूरी प्रक्रिया में प्रति सीप करीब 15 रुपए खर्च होते हैं। छह रुपए मैटल टिश्यु की कीमत, चार रुपए दवा व मजदूरी पर। सीप डालने पर तालाब में सरसों की खली, गेहूं की भूसी, गोबर घोल डालते हैं, तीन से पांच रुपए उसका खर्च। इस विधि से प्राप्त एक मोती की कीमत तीन सौ से 20 हजार रुपए तक है। कीमत मोती की गुणवत्ता से तय होती है।
दरअसल, सीप में मोती का निर्माण तभी शुरू होता है, जब कोई बाह्य पदार्थ इसके अंदर प्रवेश कर जाए। सीप इसके प्रतिकार स्वरूप एक द्रव का स्नाव करता है। यही द्रव उस बाह्य कण के ऊपर जमा होता रहता है। अंत में यह मोती का रूप ले लेता है। मोती बनने के इस रहस्य का पता भारतीय मनीषियों को बहुत पहले से था। दरअसल, स्वाति नक्षत्र यानी शरद ऋतु में मीठे पानी में पैदा होने वाला सीप ठंड पाकर थोड़ा खुल जाता है। ऐसे में वर्षा जल या बाह्य कण इसमें प्रवेश कर जाए तो मोती बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। 13वीं सदी में चीन में मोती की खेती शुरू होने के प्रमाण मिलते हैं।
(साभार-दैनिक जागरण)
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