डेयरी टुडे नेटवर्क,
लखनऊ, 31 दिसंबर 2017,
धान, गेहूं और मक्के के बाद आलू दुनिया की चौथी मुख्य फसल है, लेकिन भारत में इसे सिर्फ सब्जी के रूप में देखा जाता है, जबकि बाकी कई देशों में मुख्य खाद्य फसल के रुप में खाया जाता है। यही वजह है देश में हर साल लाखों टन आलू बर्बाद होता है। जिस आलू में पूरी दुनिया की भूख मिटाने की क्षमता है, वही आलू आजकल देश के अलग-अलग हिस्सों में फेंका जा रहा है। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि देश में जो आलू पैदा किया जा रहा है, उस आलू का उपयोग खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। इसका खुलासा उत्तर प्रदेश सरकार की एक रिपोर्ट में हुआ है।
उत्तर प्रदेश की कृषि निर्यात और कृषि विपणन मंत्री स्वाति सिंह बताती हैं, ”उत्तर प्रदेश समेत देश के अधिकतर हिस्सों में उगाए जा रहे आलू में पानी की मात्रा अधिक होने के कारण यह आलू खाद्य प्रसंस्करण के उपयोग लायक नहीं हैं, ऐसे खाद्य प्रसंस्करण में लगी कंपनियां इन आलू को खरीदने से बच रही हैं।” आगे बताती हैं, “इसलिए सरकार का प्रयास है कि किसान ऐसे आलू को पैदा करें जो खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में काम आ सके, इससे किसानों को फायदा मिलेगा।“
पूरी दुनिया में आलू उत्पादन में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आने वाले भारत में आलू के विपणन और भंडारण की उचित व्यवस्था नहीं होने के कारण हर साल हजारों टन आलू सड़ जाता और उसको फेंकना पड़ता है। यह हाल तब है जब देश में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग बढ़ रहा है। देश में भले ही आलू के चिप्स का 10 ग्राम का पैकेट 10 रुपए यानि एक हजार रुपए किलो बिकता है, लेकिन आलू किसान इसको कौड़ियों के दाम बेचने पर मजबूर हैं।
ऐसा इसलिए हो रहा क्योंकि देश में पैदा होने वाले आलू का मात्र 5 प्रतिशत ही खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में उपयोग हो पा रहा है, जबकि अमेरिका में कुल उत्पादित आलू का 56 फीसदी, नीदरलैंड में 55 फीसदी, जर्मनी में 40 फीसदी और ब्रिटेन में 30 फीसदी आलू खाद्य प्रसंस्करण ईकाइयों में प्रसंस्कृत होता है।
देश के सबसे बड़े आलू उत्पाद राज्य उत्तर प्रदेश में आलू किसानों की स्थिति सबसे खराब है। उत्तर प्रदेश में इस वर्ष 2016-17 में रिकार्ड 155 लाख टन आलू का उत्पादन हुआ है, लेकिन सरकार की तरफ से मात्र 12 हजार 937 कुंतल आलू की खरीद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदी गई है। ऐसे में बाकी का आलू किसानों को मंडियों में औने-पौने दामों में बेचना पड़ा है, जिससे किसानों की लागत भी नहीं निकली है।
स्थिति यह है कि 23 रुपए किलो आलू का बीज खरीदकर बुवाई करने वाले किसानों को 2 से लेकर 3 रुपए प्रति किलो के रेट में अपना आलू बेचना पड़ा था और जिन किसानों का कोल्ड स्टोर में आलू स्टोर किया, उनके पास इतना पैसा नहीं कि वह वहां से आलू निकाल सकें। ऐसे में आलू की खेती से अपना हाथ जला बैठे किसान इस रबी सीजन में आलू से किनारा कर लिए हैं।
भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश प्रवक्ता आलोक वर्मा बताते हैं, ”उत्तर प्रदेश में आलू की बंपर पैदावार के बाद भी आलू किसान बर्बाद हैं। सरकार की तरफ से आलू किसानों से न्यूनतम समर्थन मूल्य 487 रुपए प्रति कुंतल की दर से आलू खरीदने की घोषणा हुई थी, लेकिन किसानों से आलू खरीद हुई ही नहीं। सरकार के इस रवैये पर अब किसान ने आलू की खेती से मुंह मोड़ लिया है।”
उत्तर प्रदेश में आलू किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलाने के लिए उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपनी दूसरी ही कैबिनेट बैठक में किसानों को राहत देने के लिए सरकार की तरफ से एक लाख टन आलू किसानों से खरीदने का फैसला किया था। राज्य सरकार ने चार एजेंसी, उत्तर प्रदेश राज्य औद्योगिक सहकारी विपणन संघ, यूपी एग्रो, पीसीएफ और उत्तर प्रदेश उपभोक्ता सहकरी संघ लिमिटेड किसानों से 487 रुपए प्रति कुंतल की दर से आलू खरीदने का आदेश दे दिया था, लेकिन स्थिति यह है कि सरकार की यह एजेंसियां कुल आलू उत्पादन का एक प्रतिशत भी नहीं खरीद पाईं।
केन्द्रीय आलू अनुसंधान संस्थान, मोदीपुरम मेरठ के आलू वैज्ञानिक डॉ. देवेन्द्र कुमार ने बताया, ”अपने पोषक गुणों के कारण दुनियाभर में आलू की मांग है, लेकिन भारत में दुर्भाग्य से आलू को मुख्य अनाज चावल और गेहूं के विकल्प के रूप में देखा ही नहीं गया।” उन्होंने बताया, “आलू को अभी भी परंपरागत सब्जी के रूप में ही देखा जाता है, जबकि बाहर के देशों में इसे मुख्य अनाज के रूप में अपना लिया गया है। धान, गेहूं और मक्का के बाद आलू दुनिया की चौथी मुख्य फसल है, लेकिन भारत में इसका जितना उपयोग अलग-अलग तरीकों से होना चाहिए, नहीं हो पा रहा है।”
(साभार-गांव कनेक्शन)
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