डेयरी टुडे डेस्क
नई दिल्ली, 28 अगस्त 2017,
पूर्वी राज्यों में खेती का बुनियादी ढांचा लचरपूर्वी राज्यों में खेती का बुनियादी ढांचा लचरगेहूं के मामले में पूर्वी राज्यों की बुवाई क्षेत्र के लिहाज से हिस्सेदारी 27 फीसद है
नई दिल्ली (सुरेंद्र प्रसाद सिंह)। जिस पूर्वी क्षेत्र के बलबूते देश दूसरी हरितक्रांति का सपना बुना जा रहा है, वहां खेती का बुनियादी ढांचा चरमराया हुआ है। खाद्य सुरक्षा का बड़ा दायित्व इन्हीं पूर्वी राज्यों के कंधों पर डाल दिया गया है। लेकिन यहां की खेती की हालत कितनी ख़राब है, उसी की थाह लगाने के लिए बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में एक अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला आयोजित की जा रही है।
खाद्य सुरक्षा में अहम भूमिका निभाने वाले गेहूं की खेती में पूर्वी राज्यों की बुवाई क्षेत्र के लिहाज से हिस्सेदारी 27 फीसद है। जबकि उत्पादन के मामले में हिस्सेदारी मात्र 22 फीसद है। प्रति हेक्टेयर पैदावार के मामले में पूर्वी राज्यों की हालत पस्त है। गेहूं की राष्ट्रीय पैदावार जहां 31 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है तो इन पूर्वी राज्यों में मात्र 19 क्विंटल। यहां अभी भी 30 साल पुराने गेहूं के बीजों से दूसरी हरित क्रांति का सपना देखा जा रहा है। बुवाई सीजन में उन्नति शील प्रजाति के बीज नहीं मिल पाते हैं।
बीएचयू में एग्रोनामी के प्रोफेसर रमेश कुमार सिंह ने बताया कि देश में गेहूं की कुल 430 प्रजातियां हैं। लेकिन मात्र 25 से 30 प्रजातियां ही हैं जिन्हें गेहूं किसान सबसे ज्यादा पसंद करते हैं। ये प्रजातियां उनके हिसाब से फायदेमंद हैं। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, असम और पश्चिम बंगाल में तो गिनती की ही प्रजातियां प्रचलन में हैं। बीजों के बिना गेहूं की उत्पादकता बढ़ाना आसान नहीं होगा।
गेहूं खेती के लिए यहां की छोटी जोत के हिसाब से आधुनिक टेक्नोलॉजी नहीं है। छिटकवां बुवाई की जगह लाइन में बुवाई जरूरी है, जिसके लिए मशीनें नहीं हैं। यहां की जमीन में माइक्रो न्यूटिएंट्स तेजी से घट रहे हैं, जिससे पैदावार घटेगी ही। सिंचाई के लिए उपलब्ध साधन सीमित है, जिससे किसान अपने खेतों में खूब पानी लगाते हैं। इससे उन्हें आर्थिक नुकसान होता है। लागत के मुकाबले उत्पादकता कम होने से गेहूं की लागत बढ़ जाती है, जिससे किसानों को घाटा हो रहा है।
इन सारे मुद्दों पर समन्वित चर्चा के लिए केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन सिंह ने एक पहल की है। इसमें देश के ही नहीं दुनिया के जाने-माने गेहूं के वैज्ञानिकों को आमंत्रित किया गया है। इसमें पूर्वी राज्यों में गेहूं की उत्पादकता बढ़ाने पर जोर दिया जाएगा। डा. रमेश सिंह ने बताया कि यहां की जमीन में सूक्ष्म तत्वों जिंक, बोरान समेत कई अन्य तत्व कम हो गये हैं।
मई जून के 45 डिग्री सैल्शियस तापमान की वजह से जैविक कार्बन जल जाता है, जिससे 0.5 से ज्यादा बढ़ाये नहीं बढ़ रहा है। यह एक गंभीर चिंता का विषय है। यहां के खेतों में 33 साल पुराने गेहूं के बीजों की बुवाई होती है। खेती की टेक्नोलॉजी में ट्रैक्टर से जोतकर बीज छिटक देना ही काफी समझा जाता है। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि अगर कूंड में बीज डालकर बुवाई हो तो उत्पादकता 15 फीसद तक बढ़ सकती है।
साभार-दैनिक जागरण
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