गर्मियों में पशुओं की देखभाल पर विषेष ध्यान देने की आवश्यकता है। उत्तर-पश्चिमी भारत में गर्मी बहुत अधिक पड़ती है और लंबे समय तक होती है। यहां गर्मियों में तापमान 45 डिग्री के पार चला जाता है। ऐसे मौंसम में पशु दबाव की स्थिति में आ जाते हैं। इस दबाव की स्थिति का पशुओं की पाचन प्रणाली और दूध उत्पादन क्षमता पर उल्टा प्रभाव पड़ता है। इस मौसम में नवजात पशुओं की देखभाल में अपनायी गयी तनिक सी भी असावधानी उनकी भविष्य की शारीरिक वृद्धि, स्वास्थ्य, रोग प्रतिरोधी क्षमता और उत्पादन क्षमता पर स्थायी कुप्रभाव डाल सकती है। गर्मी में पशुपालन करते समय ध्यान न देने पर पशु के सूखा चारा खाने की मात्रा में 10 से 30 प्रतिशत और दूध उत्पादन क्षमता में 10 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है। साथ ही साथ अधिक गर्मी के कारण पैदा हुए आक्सीकरण तनाव की वजह से पशुओं की बीमारियों से लड़ने की अंदरूनी क्षमता पर बुरा असर पडता है और आगे आने वाले बरसात के मौसम में वे विभिन्न बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। जिससे उनकी उत्पादन व प्रजनन क्षमता में गिरावट आ जाती है।
इस मौसम में सांड़ों की प्रजनन क्षमता पर भी दुष्प्रभाव पड़ता है। सांड़ों में वीर्य उत्पादन व गुणवत्ता में कमी आती है। भैंसों में यह दुष्प्रभाव अधिक देखने को मिलता है। उनके शरीर का काला रंग तथा बालों की कमी उष्मा को अधिक अवषोषित करती है। इसके अतिरिक्ति भैंसों में पसीने की ग्रन्थियाँ गायों की अपेक्षा बहुत कम होती है, जिसके कारण भैंसों को शरीर से उष्मा निकालने में अधिक कठिनाई होती है। ऐसे गरम वातावरण में मादा पशुओं का मद चक्कर का काल लम्बा हो जाता है और मदावस्था का काल एवं उग्रता दोनों ही काफी मद्विम पड़ जाते हैं तथा पशुओं में अमादकता की स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है।
इसलिए ग्रीष्म ऋतु में होने वाले इन दुष्प्रभावों को कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय करना पशुओं के उत्पादन व प्रजनन क्षमता को बनाए रखने में मदद करता है।-
पशुओं के लिए आवास हेतु साफ-सुथरी व हवादार पशुशाला होनी चाहिए जिसका फर्श पक्का व फिसलन रहित हो तथा मूत्र व पानी की निकासी हेतु ढलान हो। पशुशाला की छत उष्मा की कुचालक हो ताकि गर्मियों में अत्यधिक गरम न हो। इसके लिए एस्बेस्ट्स सीट उपयोग में लायी जा सकती है। अधिक गर्मी के दिनों में छत पर 4 से 6 इंच मोटी घास-फूस की परत या छप्पर ड़ाल देना चाहिए। ये परत उष्मा अवरोधक का कार्य करती है जिसके कारण पशुशाला के अन्दर का तापमान कम बना रहता है। सूर्य की रोशनी को परावर्तन करने हेतु पशुशाला की छत पर सफेद रंग करना या चमकीली एल्युमिनियम शीट लगाना भी लाभप्रद पाया गया है। पशुशाला की छत की ऊँचाई कम से कम 10 फुट होनी आवश्यक है ताकि हवा का समुचित संचार पशुशाला में हो सके तथा छत की तपन से भी पशु बच सके। पशुशाला की खिड़कियाँ व दरवाजों व अन्य खुली जगहों पर जहाँ से तेज गरम हवा आती हो, बोरी या टाट आदि टांग कर पानी का छिड़काव कर देना चाहिए। पशुशाला में पंखों का होना भी लाभप्रद होता है। अतः सम्भव हो तो उसकी भी व्यवस्था होनी चाहिए।
पशुओं के आवास गृह में अधिक भीड़-भाड़ नही होनी चाहिए। प्रत्येक पशु को उसकी आवश्यकता के अनुसार पर्याप्त स्थान उपलब्ध कराएं। एक वयस्क गाय व भैंस को 40 से 50 वर्गफुट स्थान की आवश्यकता होती है। मुक्त घर व्यवस्था में गाय व भैंसों को क्रमषः 35 व 40 वर्ग मीटर स्थान ढ़का हुआ तथा 7 व 8 वर्ग मीटर खुले बाड़े के रूप में प्रति पशु उपलबध होना चाहिए। शीघ्र ब्याने वाले पशुओं के लिए ढका हुआ क्षेत्र 12 वर्ग मीटर व उतनी ही जगह खुले क्षेत्र के रूप में उपलब्ध करानी चाहिए।प्रजनन हेतु सांड़ के लिए ढ़का क्षेत्र 12 वर्ग मीटर व खुला क्षेत्र 120 वर्ग मीटर होना चाहिए जिससे सांड़ को पर्याप्त व्यायाम मिलता रहता है, जो उसकी प्रजनन क्षमता को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है।
पशुओं के शरीर पर दिन में तीन या चार बार जब वायुमंडल तापमान अधिक हो, ठंड़े पानी का छिड़काव करें। यदि सम्भव हो तो तालाब व जोहड़ में भैसों को ले जाएं। प्रयोगों से यह साबित हुआ है कि दोपहर को पशुओं पर ठंड़े पानी का छिड़काव उनके उत्पादन व प्रजनन क्षमता को बढ़ानें में सहायक होता है।
गर्मियों में पशु चारा चरना कम कर देते है। गर्मियों में जल वायुमंडलीय तापमान पशुओं के शारीरिक तापमान से अधिक हो जाता है तो पशु सूखा चारा खाना कम कर देते है क्योंकि सूखा चारा को पचाने में शरीर में उष्मा का अधिक मात्रा में निकलता है। अतः पशुओं को चारा प्रातः या सांयकाल में ही उपलब्ध कराना चाहिए तथा जहां तक सम्भव हो पशुओं के आहार में हरे चारे की मात्रा अधिक रखें। गर्मी में पशुपालन करते समय पशुओं को हरे चारे की अधिक मात्रा उपलब्ध कराना के दो लाभ हैं, एक तो पशु अधिक चाव से स्वादिष्ट एवं पौष्टिक चारा खाकर अपनी उदरपूर्ति करता है, तथा दूसरा हरे चारे में 70-90 प्रतिशत तक पानी की मात्रा होती है, जो समय-समय पर जल की पूर्ति करता है। यदि पशुओं को चारागाह में ले जाते है तो प्रातः व सांयकाल को ही चराना चाहिए जब वायुमंडलीय तापमान कम हो ।पशुपालक को चाहिए कि गर्मी के मौसम में हरे चारे के लिए मार्च, अप्रैल माह में मूंग, मक्का, काऊपी, बरबटी आदि की बुवाई कर दें जिससे गर्मी के मौसम में पशुओं को हरा चारा उपलब्ध हो सके. ऐसे पशुपालन जिनके पास सिंचित भूमि नहीं है, उन्हें समय से पहले हरी घास काटकर एवं सुखाकर तैयार कर लेना चाहिए. यह घास प्रोटीन युक्त, हल्की व पौष्टिक होती है।
गर्मी के मौसम में पशुओं को भूख कम लगती है और प्यास अधिक। इसलिए पशुओं को पर्याप्त मात्रा में दिन में कम से कम तीन बार पानी पिलाना चाहिए. जिससे शरीर के तापक्रम को नियंत्रित करने में मदद मिलती है. इसके अलावा पशु को पानी में थोड़ी मात्रा में नमक एवं आटा मिलाकर पानी पिलाना चाहिए। पीने के लिए ठंड़ा पानी उपलब्ध कराना चाहिए। इसके लिए पानी के टैंक पर छाया की व्यवस्था हो। पानी की पाइपों को खुली धूप से न गुजारें तथा जहां तक हो सके तो जमीन के अन्दर बिछी होनी चाहिए ताकि पानी को दिन में गर्म होने से बचाया जा सके। पशुओं को ठण्ड़ा पानी पिलाने के लिए घड़े के पानी का उपयोग भी कर सकते है।
पशुशाला के आस-पास छायादार वृक्षों का होना परम आवश्यक है। यह वृक्ष पशुओं को छाया तो प्रदान करते है साथ ही उन्हें गरम लू से भी बचाते है।
वैसे तो ग्रीष्मऋतु का प्रभाव लगभग सभी प्रकार के जानवरों पर देखा गया है, परंतु सबसे अधिक प्रभाव गाय, भैंसों पर होता है। यह भैंस के काले रंग, पसीने की कम ग्रंथियों तथा विशेष हार्मोन के प्रभाव के कारण होता है।
पशु को लू लगने के लक्षण-
*पशुओं को आहार लेने में अरुचि दिखाता है।
*दुधारू पशुओं के दुग्ध उत्पादन में कमी होना
*नाक से खून बहना एवं पतला दस्त होना
*आंख व नाक लाल होना, एवं हृदय की धड़कन का तेज होना
*पशु गहरी सांस लेता है व हाफ़ने लगता है। मुंह से जीभ बाहर निकलना, अंतिम अवस्था में श्वास कमजोर पड़ जाती है ।
*पशु की अत्याधिक लार बहती है, मुंह के आसपास झाग आ जाता है ।
*पशु बेचैनी दिखाता है, छाया ढूंढता है तथा बैठता नहीं है।
*प्रजनन क्रिया क्षीण मंद हो जाना- इस मौसम में भैसों व संकर नस्ल गायों की प्रजनन क्षमता मंद हो जाती है तथा मदचक्र लम्बा हो जाता है एवं मद अवस्था का काल व उग्रता दोनों बढ़ जाती है। जिसके कारण पशुओं में गर्भधारण की संभावना काफी घट जाती है
*गाय, भैंसों के दूध में वसा तथा प्रोटीन की मात्रा कम हो जाती है, जिससे दूध की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
*मादा में भ्रूणीय मृत्यु दर बढ़ जाती है।
*पशु का व्यवहार असामान्य हो जाता है।
*नर पशु की प्रजनन क्षमता घट जाती है।
*नर पशु से प्राप्त वीर्य में शुक्राणु मृत्यु दर अधिक पाई जाती है।
*नर व मादा पशु की परिपक्वता अवधि बढ़ जाती है।
*बच्चों की अल्प आयु में मृत्यु दर बढ़ जाती है।
*बीमार पशु की उचित देखभाल न होने के कारण उसकी मृत्यु तक हो जाती है
पशु को लू लगने से बचाव –
इन उपायों और निर्देशों को अपना कर दुधारू पशुओं की देखभाल एवं नवजात पशुओं की देखभाल उचित तरीके से की जा सकती है और गर्मी के प्रकोप और बिमारियों से बचाया जा सकता है तथा उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है। लू से पशुओं को बचाने के लिए कुछ सावधानियां बरतनी चाहिये-
*डेरी को इस प्रकार बनाएं की सभी जानवरों के लिए उचित स्थान हो ताकि हवा को आने जाने के लिए जगह मिले।
*सीधे तेज धूप और लू से पशुओं को बचाने के लिए पशुशाला के मुख्य द्वार पर खस या जूट के बोरे का पर्दा लगाना चाहिये ।
*मवेशियों को गर्मी से बचाने के लिए पशुपालक उनके आवास में पंखे, कूलर और फव्वारा सिस्टम लगा सकते हैं। पंखों या फव्वारे के द्वारा पशुशाला का तापमान लगभग 15 डिग्री फेरानाइट तक कम किया जा सकता है। पशु शाला के अंदर जो पंखे प्रयोग में लाये जाते है, उनका आकार 36-48 इंच और जमीन से लगभग 5 फीट ऊंची दीवार पर 30 डिग्री एंगल पर लगाना चाहिए। पशुशाला को कूलर लगाकर भी ठंडा किया जा सकता है। एक कूलर लगभग 20 वर्गफुट की जगह को बहुत अच्छा ठंडा कर सकता है।
* सहन के आसपास छायादार वृक्षों की मौजूदगी पशुशाला के तापमान को कम रखने में सहायक होती है।
* पशुओं को छायादार स्थान पर बाँधना चाहिये । दिन के समय में उन्हें अन्दर बांध कर रखें ।
*पर्याप्त मात्रा में साफ सुथरा ताजा पीने का पानी हमेशा उपलब्ध होना चहिये। पीने के पानी को छाया में रखना चाहिये।
*पशुओं से दूध निकालनें के बाद उन्हें यदि संभव हो सके तो ठंडा पानी पिलाना चाहिये ।
*गर्मी में 3-4 बार पशुओं को अवश्य ताजा ठंडा पानी पिलाना चहिये । पशुशाला में यदि पशुसंख्या अधिक हो तो पानी की कम से कम 2 जगह व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे पशु को पानी पीने में असुविधा न हो। सामान्यत: पशु को 3-5 लीटर पानी की आवश्यकता प्रति घंटे होती है। इसे पूरा करने के लिये पशु को पर्याप्त मात्रा में पानी पिलाना चाहिए। पानी व पानी की नांद सदैव साफ होना चाहिए। तथा पानी का तापमान 70-80 डिग्री फेरानाइट होना चाहिए, जिसको पशु अधिक पसंद करता है।
*भैंसों को गर्मी में 3-4 बार और गायों को कम से कम 2 बार नहलाना चाहिये ।
*गाय , भैंस की सहन की छत यदि एस्बेस्टस या कंक्रीट की है तो उसके ऊपर 4-6 इंच मोटी घास फूस की तह लगा देने से पशुओं को गर्मी से काफ़ी आराम मिलाता है ।
*खाने –पीने की नांद को नियमित अंतराल पर चूना से सफाई करते रहना चाहिये ।रसोई की जूठन और बासी खाना पशुओं को कतई नहीं खिलाना चाहिये।
*कार्बोहाइड्रेट की अधिकता वाले खाद्य पदार्थ जैसे: आटा,रोटी,चावल आदि पशुओं को नहीं खिलाना चाहिये।पशुओं के संतुलित आहार में दाना एवं चारे का अनुपात 40 और 60 का रखना चहिये ।
*गर्मियों के मौसम में पैदा की गयी ज्वार में जहरीला पदर्थ हो सकता है जो पशुओं के लिए हानिकारक होता है । अतः इस मौसम में यदि बारिश नहीं हुई है तो ज्वार खिलाने के पहले खेत में 2-3 बार पानी लगाने के बाद ही ज्वार चरी खिलाना चहिये ।
*पशुचारे में अम्ल घुलनशील रेशे की मात्रा 18-19 प्रतिशत से ज्यादा होनी चाहिए। इसके अलावा पशु आहार अवयव जैसे-यीष्ट (जो कि रेशा पचाने में सहायक है), फंगल कल्चर (उदा. ऐसपरजिलस ओराइजी और नाइसिन) जो उर्जा बढ़ाते है देना चाहिये।
*चूंकि पशु का दाना ग्रहण करने की क्षमता घट जाती है, अत: पशु के खाद्य पदार्थ में वसा, ऊर्जा बढ़ाने का अच्छा स्त्रोत है, इसकी पूर्ति के लिए पशु को तेल युक्त खाद्य पदार्थ जैसे सरसों की खली, बिनौला, सोयाबीन की खली, या अलग से तेल या घी आदि पशु को खिलाना चाहिए। पशु आहार में वसा की मात्रा लगभग 3 प्रतिशत तक पशु को खिलाये गये शुष्क पदार्थों में होती है। इसके अलावा 3-4 प्रतिशत पशु को अलग से खिलानी चाहिए। कुल मिलाकर पशु को 7-8 प्रतिशत से अधिक वसा नहीं खिलानी चाहिए।
*पशुओं का इस मौसम में गलाघोंटू , खुरपका मुंहपका , लंगड़ी बुखार आदि बीमारियों से बचाने के लिए टीकाकरण जरूर कराना चाहिये जिससे वे आगे आने वाली बरसात में इन बीमारियों से बचे रहें।
गर्मी के दिनों में पशु को दाने के रूप में प्रोटीन की मात्रा 18 प्रतिशत तक दुग्ध उत्पादन करने वाले पशु को खिलानी चाहिए। यह मात्रा अधिक होने पर अतिरिक्त प्रोटीन पशु केपसीने व मूत्र द्वारा बाहर निकल जाती है। पशु को कैल्शियम की पूर्ति के लिये लाईम स्टोन चूना पत्थर की मात्रा भी कैल्शियम के रूप में देना चाहिए। जिससे पशु का दुग्ध उत्पादन सामान्य रहता है।
*लू की चपेट में आने पर पशु को तुरंत चिकित्सक को दिखाएं ।
(संकलन- डॉ जितेंद्र सिंह ,पशु चिकित्सा अधिकारी, कानपुर देहात, पशुपालन विभाग,उत्तर प्रदेश।)
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